Tuesday, January 8, 2013

वीरता

अमर यौवन की आग में जल कर
जो प्रलय पौरुष  तपते  हैं
सूर्य,धरा ,देव,मुनि,जन
उनके सम्मुख जा झुकते हैं 

चढ़ी प्रत्यंचा वीरो की जब जब
शत्रु कम्पित हो  उठते हैं
रौद्र रूप धर वीर ही  तब तब
नव क्रांति सृजन की करते हैं

असुरो के  भय  से जब जब
मानव त्रास हुआ हैं
कृष्ण रूप धर वीरो ने ही तब
तब उसका  संहार किया हैं

सिन्धु के उठते ज्वारो में 
जब दंभ नया उपजा  हैं
लेकर जन्म राम का, वीरो ने
उसका भी उत्थान किया हैं

शौर्य  के इस आदित्य को देखा
जब जब जिस यौवन ने
मातृभूमि, धर्म की रक्षा का
लिया शपथ उसने जीवन में

राष्ट्रधर्म की तपती ज्वाला में
प्राणों की आहुति जो देते हैं
सदियों तक उनके पौरुष ही
कवियों के ह्रदय में  बसते हैं

हाँ मैंने देखा हैं



मैंने  टूटे  हुए  ख्वांबो  के
उजड़ते  हुए आशियानों से
उठ  रही  चंगारियो  को 
करीब  से  देखा  हैं

 कांपती हुई  उम्मीदों पे
जलती  हुई त्रिष्णगी से
बुझ  रहे  अरमानो  को
खुद में ही मरते देखा  हैं

 हाँ  मैंने  देखा  हैं
सपनो  को  रेत  की  तरह
पानी  की  ज़िन्दगी  में
बहते, घुलते और मिटते  भी
आंसुओं को खून की तरह
बहते,रुकते और थमते भी  
हाँ  मैंने  देखा  हैं